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सियाराम पांडेय ‘शांत’
बचत इसलिए की जाती है कि वह वक्त जरूरत पर काम आए। बचत इसलिए नहीं की जाती कि भविष्य में उसका कोई उपयोग ही न हो। अपने देश में पैसे की कमी नहीं है। लेकिन उसका सही उपयोग नहीं होता। सरकार विकास कार्यों के लिए जितना धन स्वीकृत करती है, उसका अगर शत-प्रतिशत उपयोग हो जाए तो इस देश की तरक्की को पंख लग जाए। अर्थव्यवस्था में चार चांद लग जाए। विकास के लिए धन की जरूरत होती है। जब सभी क्षेत्रों में विकास के पांव फैलते हैं तो धन की जरूरत बढ़ जाती है। बिगड़ी हुई व्यवस्था को पटरी पर लाना हो तो धन का प्रबंध करना ही पड़ता है। धन का प्रबंध दो ही तरीके से किया जा सकता है- कमाकर या कर्ज लेकर। कमाने के लिए भी व्यवस्था के सभी कील-कांटे दुरुस्त करने पड़ते हैं।
रही बात ऋण लेने की तो 29 जुलाई की भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि उस दिन भारत पर 514.40 अरब डॉलर का बाहरी कर्ज था। विश्व बैंक के आंकड़ों पर गौर करें तो 1945 से 21 जुलाई 2015 के बीच भारत पर कुल 101 बिलियन डॉलर यानी 676 अरब रुपये का कर्ज सिर्फ विश्व बैंक का था। इंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट ने भी भारत को कुल 52.7 मिलियन डॉलर (3.5 अरब रुपये) का कर्ज दे रखा है। अंतरराष्ट्रीय विकास संघ से भी भारत ने विगत सात दशकों में 49.4 बिलियन डॉलर (330 अरब रुपये ) का कर्ज ले रखा है। इसके बाद भी क्या देश को और कर्ज लेना चाहिए? कर्ज लेना आसान है लेकिन उसे चुकाएगा कौन? ऐसे में अगर भारत सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक से उसके लाभांश का कुछ हिस्सा मांगा तो इसमें बुरा क्या है? अगर देश की विकास जरूरतें अपने आर्थिक संसाधनों से पूरी हो जाती हैं तो इससे उत्तम तरीका दूसरा नहीं हो सकता। नीति भी यही कहती है कि ‘ उतना पांव पसारिये, जितनी लंबी चादर हो।’
देश का पैसा है। देश के काम तो आना ही चाहिए। ऐसा भी नहीं कि इससे पूर्व की सरकारों ने भारतीय रिजर्व बैंक से धन न लिया हो। यह एक सवाल जरूर हो सकता है कि इससे पहले इतना अधिक धन न मांगा गया और न आरबीआई ने दिया। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस समेत विपक्ष इस मामले पर आर्थिक श्वेतपत्र लाने की मांग कर रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियों के कंठ सुर भी विपक्ष से मिल रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि देश में बहुत बड़ा आर्थिक अनर्थ होने जा रहा है। लेकिन ऐसा है नहीं। विमल जालान आरबीआई के गवर्नर रह चुके हैं और उनकी अगुआई में गठित समिति ने इस बाबत सिफारिश की है तो ऐसा उन्होंने बिना सोचे-बिचारे तो नहीं किया होगा। भारतीय रिजर्व बैंक ने केंद्र सरकार की मंशा को समझा और महसूस किया होगा कि वह इस देश को विकास की राह पर ले जाने को बेताब हैं लेकिन बिना पर्याप्त धन के भारत का विकसित हो पाना संभव नहीं है। 1 लाख 76 हजार 51 करोड़ रुपये देने का उसका निर्णय सेंट्रल बोर्ड ने लिया है। जिस तरह इस मामले का राजनीतिक विरोध हो रहा है, उसे बहुत उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह भारतीय रिजर्व बैंक का अंतरिम लाभांश है। उसकी मूल राशि उसके पास ही है। इसलिए यह कहना कि इस राशि को देने के बाद भारतीय रिजर्व बैंक कंगाल हो जाएगा, सही नहीं है। इस अंतरिम लाभांश राशि से केंद्र सरकार को वैश्विक मंदी के खतरों से उबरने में मदद मिलेगी। साथ ही उसका संरचनात्मक विकास ढांचा भी कमजोर नहीं होगा। यह सरप्लस यानी अधिशेष पूंजी का ट्रांसफर वर्ष 2018-19 की जीडीपी का महज 1.25 प्रतिशत है। शेष 98.75 प्रतिशत राशि तो आरबीआई के पास ही है।
गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने मोदी सरकार की सलाह के बाद एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी को समीक्षा के उपरांत यह सलाह देना था कि आरबीआई कितनी पूंजी अपने पास रख सकती है और कितनी पूंजी केंद्र सरकार को दे सकती है। आरबीआई के पास 2017-2018 के वित्तीय वर्ष के आखिर में 9.6 लाख करोड़ रुपये की पूंजी थी। सरप्लस राशि का मुद्दा मोदी सरकार और आरबीआई के बीच तनातनी का विषय भी बना था। सरकार का तर्क था कि रिजर्व बैंक किसी भी अन्य सेंट्रल बैंक की तुलना में बहुत ज्यादा नकदी रिजर्व रख रहा है। उर्जित पटेल ने निजी कारणों का हवाला देते हुए आरबीआई गवर्नर पद से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि वित्त मंत्रालय का कहना था कि वैश्विक नियम कुल संपत्ति का 14 फीसदी बफर पूंजी रखने का ही है लेकिन आरबीआई अपने पास कुल संपत्ति का 28 फीसदी रखे हुए है। विपक्ष अगर इस मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने की बजाय 1997 में बनी वी. सुब्रह्मण्यम समिति और 2004 में बनी ऊषा थोराट समिति की सलाह पर भी विचार कर लेता जिसमें आरबीआई को कुल संपत्ति का क्रमश: 12 और 18 प्रतिशत हिस्सा ही अपने पास रखने की सलाह दी गई थी,तो भी वह इस मुद्दे पर अनावश्यक राजनीतिक कोहराम का हिस्सा न बनता।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को नहीं मालूम कि स्वनिर्मित आर्थिक संकट से कैसे निपटा जाए। आरबीआई से चुराने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि यह किसी दवाखाने से बैंड-एड चुराकर गोली लगने से हुए घाव पर लगाने जैसा है। उन्हें पता होना चाहिए कि सरकार जिस तरह हजारों-लाखों हाथों से देश को पैसा देती है, उसी तरह जनता से पैसा लेती भी है। और इस सफाई से लेती है कि जनता को पता भी नहीं चलता। सरकार चाहती तो वही तरीका अपना सकती थी लेकिन रिजर्व बैंक से पैसे मांगकर उसने देश को और महंगाई की मार से बचाया है। विपक्ष को अपने उन नेताओं पर विचार करना चाहिए कि उनके पास से बड़ी तादाद में अवैध पैसे कैसे बरामद हो रहे हैं? विपक्ष का तर्क वाजिब है कि सरकार ने यह नहीं बताया कि इतनी बड़ी धनराशि का वह उपयोग कहां करेगी? सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता और आर्थिक शुचिता का तो ध्यान दिया ही जाना चाहिए। केंद्र सरकार को विपक्ष के इस सवाल का जवाब जरूर देना चाहिए।
कांग्रेस का यह भी सवाल है कि क्या इस पैसे का इस्तेमाल भाजपा के पूंजीपति मित्रों को बचाने के लिए होगा? उसका मानना है कि आरबीआई से ‘प्रोत्साहन पैकेज’ लेना इस बात का सबूत है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत खराब हो चुकी है।
वैसे 18 फरवरी 2019 को तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने रिजर्व बैंक के साथ बैठक की थी जिसमें सरकार को 28,000 करोड़ रुपये का अंतरिम लाभांश देने पर सहमति बनी थी। वर्ष 2018 में भी रिजर्व बैंक ने केंद्र को 10,000 करोड़ रुपये का अंतरिम लाभांश दिया था। माना यह गया था कि अंतरिम लाभांश देने पर सरकार के साथ सहमति नहीं बनने की वजह से ही उर्जित पटेल ने दिसंबर 2018 में इस्तीफा दिया था। रिजर्व बैंक के वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार, उसके बही-खाते में 36.2 लाख करोड़ रुपये की रकम थी। वैसे भी रिजर्व बैंक का बही-खाता किसी कंपनी की तरह पूरी तरह मुनाफे का नहीं होता। वह जितनी करेंसी छापता है उसका आधा से ज्यादा हिस्सा लायबिलिटी यानी देनदारी के रूप में होता है। खजाने का 26 फीसदी हिस्सा रिजर्व बैंक का सरप्लस रिजर्व होता है। यह सरप्लस रिजर्व विदेशी या भारत सरकार की प्रतिभूतियों और सोने में निवेश के रूप में होता है। रिजर्व बैंक के पास संप्रति लगभग 566 टन सोना है। कुल खजाने का करीब 77 फीसदी हिस्सा विदेशी संपत्ति और रिजर्व के रूप में है। बैकिंग व्यवस्था के जानकार जानते हैं कि रिजर्व बैंक के पास दो तरह के रिजर्व होते हैं करेंसी एंड गोल्ड रीवैल्यूएशन अकाउंट और आपात निधि। रिजर्व में सबसे बड़ा हिस्सा करेंसी एंड गोल्ड रीवैल्यूएशन अकाउंट का होता है। साल 2017-18 में इसके तहत कुल 6.9 लाख करोड़ रुपये थे जबकि आपात निधि 2.32 लाख करोड़ रुपये थी। रिजर्व बैंक की अधिशेष राशि वह होती है जो वह सरकार को दे सकता है। अपनी जरूरतें पूरी करने, जरूरी प्रावधान और जरूरी निवेश के बाद जो राशि बचती है, उस सरप्लस राशि को रिजर्व बैंक को सरकार को देना होता है। रिजर्व बैंक ने साल 2017-18 में 14,200 करोड़ रुपये की आपात निधि तय की थी। जब रिजर्व बैंक को सरप्लस राशि सरकार को देनी ही है तो इसमें इतना हाय-तौबा मचाने की वैसे भी क्या जरूरत है? देश का धन अगर देश के काम आ रहा है तो इसमें ऐतराज का कोई कारण वैसे भी नहीं होना चाहिए। देशहित की अनदेखी तो नहीं ही की जानी चाहिए।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)