शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता थी
देहरादून। सूचना और प्रौद्योगिकी के इस युग में पूरी दुनिया इन्सान की एक मुट्ठी में समा गई है। विश्व फलक पर देखें तो देश एक-दूसरे के निकट आ गए हैं। इससे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में परिवर्तन आया है। शैक्षिक क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। नागरिक नौकरियों के लिए अपने देश पर ही निर्भर नहीं हैं। वे अपने हुनर को दूसरे देशों में आजमाकर धन अर्जित करने की मंशा से विश्व के अलग-अलग देशों में नौकरी के लिए जाने लगे हैं। यह महत्वाकांक्षा नौकरियों तक ही सीमित नहीं, शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रवेश कर गयी है। छात्र-छात्राएं अपने उज्ज्वल भविष्य के दृष्टिगत बाहरी देशों से भी शिक्षा ग्रहण करने लगे हैं। इसके दो कारण हैं-पहला यह कि वे विदेश में बेहतरीन शिक्षा लेकर अपने देश में अच्छी नौकरी हासिल कर पाएं और दूसरा यह कि वह विदेश में अच्छी शिक्षा हासिल कर विदेश में अच्छा जाॅब प्राप्त कर सकें। शिक्षा के लिए छात्रों के विदेश जाना दोनों दृष्टियों से नुकसानदेय है। इससे पैसा और प्रतिभा दोनों बाहर चली जाती हैं और संबंधित देश को नुकसान होता है। इस समस्या के दृष्टिगत राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण की संकल्पना की गई है।
संख्यात्मक मामले में देखें तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे पायदान पर आती है, लेकिन गुणवत्ता के मामले में हम विश्व में बहुत पिछड़े हुए हैं। यही कारण है कि बड़ी संख्या में यहां की प्रतिभा और उसके साथ पैसा भी विदेश जाता है। शिक्षा के लिए होने वाले इस दोहरे पलायन के बहुत सारे नुकसान हैं। इसका दुष्प्रभाव हमारी आर्थिक व्यवस्था, विकास और समाज पर पड़ता है। हमारी नई शिक्षा नीति में भारत के संदर्भ में उपरोक्त समस्याओं को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए इसका समाधान किया गया है। इसके तहत विदेश के विश्वविद्यालयों को यहां शिक्षा देने के लिए आमंत्रित किया गया है, ताकि हमारे छात्रों को उनकी वांछित शिक्षा यहीं उपलब्ध हो जाए और उन्हें विदेश न जाना पड़े। इसके लिए कुछ शर्तें होंगी। इसका फायदा यह होगा कि हमारी प्रतिभा भी यहीं रह पाएगी और धन भी। यहां तक कि हमारे विश्वविद्यालय भी विदेशों में अपने परिसर खोल पाएंगे। देश में बाहरी विश्वविद्यालयों के आने से विद्यार्थियों के सामने शिक्षा के अनेक विकल्प उपलब्ध होंगे और वे छात्र भी यहां इन विश्वविद्यालयों से शिक्षा हासिल कर पाएंगे, जो कि कमजोर आर्थिक कारणों से विदेश नहीं जा सकते थे। साथ ही हमारे देश के और विदेश के शिक्षण संस्थानों के बीच पारस्परिक शैक्षणिक आदान-प्रदान होने के साथ ही संयुक्त शोध को बढ़ावा मिल पाएगा।
तात्पर्य यह कि भारत को ज्ञान का ऐसा केंद्र बनाया जाएगा, जो पूरे विश्व में सर्वश्रेष्ठ और विशिष्ट हो। साधारण खर्च पर यहां दी जाने वाली शिक्षा विश्वभर के छात्रों को आकर्षित करेगी। विदेशी छात्रों के साथ अतिथि जैसा व्यवहार किया जाएगा, जो कि भारतीय संस्कृति का विशिष्ट गुण है। उच्चतर शिक्षण संस्थानों में एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय स्थापित किया जाएगा, ताकि विदेश के छात्रों की उपयुक्त मेजबानी हो और उनकी समस्याओं का निस्तारण किया जा सके। उच्चतर गुणवत्ता वाले विदेशी संस्थानों के साथ अनुसंधान/शिक्षण सहयोग और संकाय/छात्र आदान-प्रदान की सुविधा बढ़ाई जाएगी।
हमारे देश के विश्वविद्यालय भी विदेश में अपने परिसर खोल सकेंगे। इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जाएगा। देश के टाॅप 100 विश्वविद्यालयों को ही भारत में शिक्षण करने की अनुमति दी जाएगी। यह सब एक वैधानिक प्रक्रिया के तहत किया जाएगा। इन विश्वविद्यालयों की भारत में स्थापना के मामले में भारत के अन्य स्वायत्त संस्थानों की तुलना में नियमों और मानदंडों में कुछ उदारता बरती जाएगी। विदेश के इन शिक्षण संस्थानों और भारतीय संस्थानों के बीच अनुसंधान सहयोग और छात्र आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया जाएगा। यही नहीं, विदेशी विश्वविद्यालयों में अर्जित क्रेडिट यहां मान्य होंगे। यदि वे उस उच्चतर शिक्षण संस्थान की आवश्यकताओं के अनुरूप हैं तो उन्हें छात्र को डिग्री प्रदान के लिए भी स्वीकार किया जाएगा।
उधर, इस मामले में केंद्रीय शिक्षा मंत्री डाॅ. रमेश पोखरियाल ’निशंक’ कहते हैं कि इस नई शिक्षा नीति का एक उद्देश्य भारत की प्रतिभा को देश में ही रोकना है। हर साल आठ लाख तक बच्चे बाहर पढ़ने जाते हैं। उनके साथ डेढ़ लाख करोड़ रुपये भी प्रति वर्ष बाहर जाते हैं। हमें अपनी प्रतिभा के साथ यह धन भी यहां रोकना है। यह उद्देश्य फाॅरेन यूनिवर्सिटीज के यहां आने से पूरा होगा। इन विश्वविद्यालयों के आने से हमारे बच्चों को बाहर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।