-कौशल अरोड़ा
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मैं गाँव हूँ,
जिस पर आरोप है कि यहाँ रहोगे तो भूखे मर जाओगे ।
जिस पर यह भी आरोप है कि यहाँ अशिक्षा होती है ।
ओर, आरोप यह भी है कि रीति नीति, रहन सहन सभी रूढ़िवादी है । जी हाँ, मैं यह भी सह रहा हूँ कि मुझे जीवन जीने का तरीका नहीं । ओर यह भी कहा गया कि मेरे पास देने को सुख-सुविधाओं का अभाव है ।

जी हाँ, मैं वहीं गाँव हूँ । जिस पर यही आरोप लगाकर मेरी संताने मुझे छोड़कर दूर अपना भविष्य खोजने कंक्रीट के जंगल रूपी शहरों में चली गई ।

मेरे बच्चे मुझे छोड़कर जाते हैं तो मैं रात भर रोता हूँ । मन में एक आशा लिए आज भी उन भीगी पलकों से बांट जोहता हूँ कि, शायद मेरे बच्चे आ जायँ । उन्हें अपने नजदीक देखने की लालसा में मैं सोता भी नहीं हूँ । भय तो मुझे यही है कि जो जहाँ गया वहीं का हो गया । मैं पूछता हूँ मेरी इस दुर्दशा के लिये जिम्मेदार तुम नहीं हो? मैंने तो तुम्हें धन अर्जन के लिए शहर भेजा था और तुम मुझे छोड़कर हमेशा के लिये शहर के हो गए।

क्या तुम्हारी सोच में मुझ गाँव में घर, मकान, बड़ा स्कूल, कालेज, इन्स्टीट्यूट, अस्पताल आदि बनाने का अधिकार नहीं?  ये अधिकार मात्र शहर को ही क्यों ? ओर शहर ने तुम्हें दिया ही क्या है । क्या तुम्हारी तकलीफ में कभी वह रुका । तनिक सोचो, विचारों ।

इस कोरोना संकट में सारे मजदूर गाँव की ओर भाग रहे हैं । अपना शहर का घर-बार, दुकान- मकान छोड़कर । गाड़ी नहीं तो सैकड़ों मील पैदल परिजन के साथ चले आ रहे है, आखिर क्यों? क्या उन्हें मेरी चिन्ता है, नहीं । मैं बताऊँ उन्हें तो बस अपना भविष्य यहीं सुरक्षित लगता है ।

वह किस आशा से पैदल गाँव की और लौटने लगे ? शायद उस विश्वास से की गाँव पालक है, वह पालेगा भी और पनपायेगा भी । शायद वह यही सोचते होंगे कि गाँव पहुंचेंगे तो उन्हें नया जीवन मिलेगा । परिवार जी जाएगा, उस छत्र के नीचे जी सकेंगे जो प्राकृत ओर नैसर्गिक वातावरण से पुनः आत्मसात होंगे । यहाँ का व्यक्ति, व्यक्ति के लिये जीता है । आत्मा तो आज भी उस गाँव के परिवार में जीती है । जहाँ कष्ट, विपदा सभी की सांझा होती हैं । सत्य यही है कि गाँव कभी किसी को भूखा सोने नहीं देता और किसी को भूखा बनाता भी नहीं । यह तो स्वाबलंबी है जो हाथ के कौशल से जाना जाता है । परिश्रम की पहचान है ।

तो आओ, मेरे लाल मैं तुम्हें निराश्रित नहीं होने दूँगा । तुम ही ने तो घरा का सीना चीर कर हम सभी के लिये अनाज पैदा किया था । तुम्ही ने तो घरा को अपनी माँ माना था । तो आओ मेरे आँचल में, मैं तुम्हें खोना नहीं अपितु संजोना चाहता हूं । मेरी गोद में फिर से अपना सिर रखकर चौपाल लगाओ, मेरे आंगन में चाक के पहिए घुमाओ । ओर तो ओर अपने कौशल से कुटीर उद्योग ओर घाणी लगाओ । उन खेतों में अनाज, फल-सब्जी उगाओ । घरा की अनमोल धरोहर जल-जमीन-जंगल का उपयोग करो । खलिहानों में बैठकर पत्तल बनाओ । गिरिजन ओर गोपाल बनो । घरा की अनमोल घरोहर नदी, ताल, तलैया, बाग-बगीचों को सँवारो ।

मुझे पता है वो तो आ जाएंगे जिन्हे मुझसे प्यार है ओर जिन्हें लगता है वह यही संक्रमण से बच पायेंगे । जिनकी आस्था अभी भी है जो माँ, माटी व मातृभाष के मोल को जानते है । जिसने मां के आँचल में अपने को बढ़ा होते संवरते अनुभव किया है, भले ही शहर की चकाचौंध में भय की राह में रह रहे हो, वह आयेगे अवश्य । लगता है अब मेरा उन पर कोई अधिकार ही नहीं बचा?

मैं उन्हें आत्मनिर्भर बनना चाहता हूँ । मैं अपने बच्चों को शहरों की अपेक्षा उत्तम ज्ञान और संस्कारित कर सकता हूँ । मै रोजी रोटी के साथ प्रकृति की गोद में जीने का प्रबन्धन, प्रकृति के दोहन ओर विदोहन का अंतर बता सकता हूँ । पर्यावरण मित्र बनने की प्रेरणा दे सकता हूँ । यहाँ का पशुधन कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है । पशुधन का अपशिष्ठ संक्रमण को रोकने का सबसे कारगर पदार्थ है। जिस अदृश्य शत्रु रूपी कोरोना से आज सभी डर रहे हैं । इसीलिये गाँव सभी तरह से बिना भय और आशंका के रहने के लिये उपयोगी हैं ।

बस, भारत को अब यहाँ का दूध-दही, सब्जी-तरकारी, पतेदार आहार को अपनाना होगा । विश्व की कृत्रिमता को त्यागना होगा । फ्रीज को नहीं सुराई को अपनाना होगा । त्यौहारों व समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डालनी होगी । अपने मोची के जूते और दर्जी के सिले कपड़ों पर गर्व करना होगा । हलवाई की मिठाई, भड़भूजे की धानी,-सत्तू का जायका बनाना होगा । प्रमाणिक प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद की देन से लम्बी आयु का आशीर्वाद मेरे आँचल में लेना होगा ।

मेरे लाल यदि खुशहाल जिन्दगी चाहते है तो मेरी गोद को पहचाने । अपनी माँ, माटी, मातृभाषा को जान । इसी से तेरी पहचान है नहीं तो बिना पहचान के अनेकों संक्रमण अपनी पहचान मिटाने को विचारों से ग्रसित करते रहेंगे । जी हाँ, मैं वहीं गाँव हूँ जो तुम्हें आत्मनिर्भर बना सकता हूँ । हाँ, मैं वही गाँव हूँ ।