कमल किशोर डुकलान ‘सरल’


सनातन संस्कृति में प्रकृति को महत्व देने की परंपरा सदैव से रही है और हम प्रकृति के पोषक होने के कारण प्रकृति की पूजा विभिन्न रूपों में करते हैं। इन सभी परंपराओं का वैज्ञानिक आधार भी है….


विविधताओं से भरे इस देश में कितने ही पर्व ऐसे हैं, जो किसी राज्य विशेष की संस्कृति को ही नहीं,बल्कि पूरे देश को जोड़ते पर्व होते हैं। श्रावण मास से प्रारम्भ होने वाला हरियाली का प्रतीक उत्तराखंड का हरेला पर्व भी एक ऐसा ही पारंपरिक लोक पर्व है। ऋतु चक्र के अनुसार मुख्यतः प्रमुख तीन ऋतुएं प्रकृति में संतुलन बनाए रखने में अहम होती है। उत्तराखंड का हरियाली का का प्रतीक हरेला पर्व भी मानव और पर्यावरण के अंतर संबंधों का अनूठा पर्व है। वनों से अन्न जल,फल, अनेक प्रकार की जड़ी बूटी एवं सब्जियों के रूप में हमें अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं।
आज भी वनों से प्राप्त अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों का प्रयोग औषधियां बनाने में किया जाता है। भारत में लगभग 35 लाख लोग वनों पर आधारित उद्योगों से कार्य कर आज भी अपनी आजीविका चलाते हैं। हरेला पर्व पर फलदार व कृषि उपयोगी पौधा रोपण की परंपरा है। हरेला केवल अच्छी फसल उत्पादन ही नहीं, बल्कि ऋतुओं के प्रतीक के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दी महीनों के अनुसार श्रावण मास भगवान शिव का प्रिय मास कहा जाता है, इसलिए हरेले के इस पर्व को कहीं-कहीं हर-काली के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि श्रावण मास शंकर भगवान जी को विशेष प्रिय है।
हम सब जानते हैं कि भगवान शिव को प्रकृति का प्रतीक माना जाता है। इसलिए यह पर्व भगवान शिव से भी जुड़ा है। भगवान शिव को कृषि का देवता माना जाता है। हरेली पर्व नई फसलों की शुरुआत का प्रतीक है। इसलिए यह पर्व भगवान शिव से जुड़ा हुआ है। भगवान शिव बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री चारों धामों में विराजमान हैं। पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के में ही भगवान शंकर का होने के कारण तथा श्रावण मास उनका प्रिय मास होने के कारण हरेला का अधिक महत्व है।
पर्यावरण संरक्षण के संदेश के प्रति लोगों को जागरूकता का प्रतीक आज देशभर में फैल चुका है। पर्यावरण संरक्षण के प्रति आज लोग जन जागरुक होने लगे हैं। वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग एवं पर्यावरण असंतुलन जैसी सम सबको देखने को मिली। पर्यावरण असंतुलन जैसी समस्याओं के चलते पर्यावरण संरक्षण का आज और भी महत्व बढ़ गया है। हमें प्रकृति संरक्षण और प्रेम की अपनी संस्कृति के साथ ही उत्सवों को मनाए जाने की परंपरा को बनाए रखना होगा।
सन् 2015 से जिस तरह से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने स्वच्छता को “स्वच्छता ही सेवा है ” एक जन-आंदोलन के रुप में लिया है, उसी तरह जल-संरक्षण के लिए भी एक जन-आंदोलन की दरकार है। जीने के लिए स्वच्छ प्राणवायु और पीने के लिए स्वच्छ पानी, इन दोनों के बिना जीवन की संकल्पना अधूरी है। देशभर में पिछले पांच जुलाई से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘एक पेड़ प्रकृति मां के नाम’ अभियान की शुरुआत कर चुके हैं। इसलिए हरेला पर्व पर हम सभी को अपने संसाधनों के रख रखाव की जिम्मेदारी के साथ संकल्प लेने की आवश्यकता है।
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए पेड़-पौधों का होना नितांत आवश्यक हैं। ऐसा स्थान जहां कोई पेड़ नहीं है वहां की हवा में ही दुख झलकता है जबकि एक अच्छी संख्या में वृक्षों से घिरा हुआ स्थान स्वचालित रूप से जीवंत और रहने लायक दिखता है। पेड़ न केवल हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ रखते हैं, बल्कि हमारे बौद्धिक विकास में भी सहायक होते हैं। पेड़-पौधों का हमारे मस्तिष्क पर शांत प्रभाव पड़ता है। दिमागी शांति धैर्य रखने की कुंजी है। जो शांत है वहीं बेहतर है और उसी में बेहतर निर्णय लेने की क्षमता है, वहीं विभिन्न परिस्थितियों में स्वस्थ मन, बुद्धि से काम भी कर सकता है। दुर्भाग्य से आज हमने अपनी जिज्ञासा और नई नई खोज की अभिलाषा में पेड़ों का उत्पादन और उनका संरक्षण करना कम कर दिया है।
हरेला पर्व हमें अवसर देता है,उस सुंदर प्रकृति को नजदीक से जानने का जिस प्रकृति में हम पलकर बढ़े हुए हैं। हरेला पर्व के अवसर पर बृहद वृक्षारोपण कर हम प्रकृति के कर्ज को चुकाकर पूर्ण कर सकते हैं। इस हरेला पर्व पर हम सभी का यह संकल्प होना चाहिए कि हम प्रतिवर्ष एक पेड़ लगाकर उसकी देखभाल जरुर करें। साथ ही चाल,खाल या अन्य तरीकों से एक-एक बूंद पानी की बचायेंगे हमारे आज के प्रयास हमारी कल की पीढ़ियों के लिए वरदान साबित होंगे।
-रुड़की,हरिद्वार (उत्तराखंड)