आजादी के बाद देश में अंग्रेजी के पक्ष में बनें माहौल में शिक्षा जगत से भारतीय भाषाएं हाशिए पर सिमटती गईं। भारत की शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी शिक्षा का अंग्रेजी पर निर्भर रहना……….



-कमल किशोर डुकलान, रुड़की (हरिद्वार)


उच्च शिक्षण संस्थानों में अगले सत्र से भारतीय भाषाओं में शिक्षण उपलब्ध कराने की केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की घोषणा यदि मूर्त रूप लेती है तो यह शिक्षा जगत के लिए एक क्रांतिकारी परिवर्तन होगा। इसे पिछले कुछ वर्षों से भारतीय भाषाओं को बढ़ाने की उसी कड़ी के रूप में देखने की जरूरत है,जिसके तहत मेडिकल की नीट परीक्षा,आइआइआइटी एंट्रेंस, राष्ट्रीय भर्ती परीक्षा आदि में भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की सुविधा मिल चुकी है। एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश में अपनी भाषाओं में शिक्षा तो स्वाभाविक रूप से दी ही जानी चाहिए थी, किन्तु आजादी बाद देश में अंग्रेजी के पक्ष में माहौल बने रहने के कारण शिक्षा जगत से लेकर लोक सेवा आयोग तक भारतीय भाषाएं हाशिए पर सिमटती गईं। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री की इस घोषणा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि हाल में संघ लोक सेवा आयोग से लेकर राज्यों की प्रशासनिक परीक्षाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों के साथ हुए अन्याय से दुखी होकर एक छात्र ने आत्महत्या तक कर दी थी। यह बिडम्बना ही है कि भाषाओं में पढ़े मेधावी छात्रों के साथ ऐसा सुलूक हो रहा है।
बदलाव के दौर में शिक्षा नीति से कुछ उम्मीद जगती है,जिसमें भारतीय भाषाओं को अपेक्षित महत्व देने की पहल हुई है। हालांकि उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को लेकर कुछ ऊहापोह की स्थिति जरूर है। जब इंजीनियरिंग और मेडिकल से लेकर समस्त उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को महत्ता मिलेगी तभी न केवल लोक सेवाओं, बल्कि अन्य सरकारी एवं गैर-सरकारी नौकरियों में भारतीय भाषी छात्रों के दिन सुधरेंगे। यह उनके लिए अवसर बढ़ाने के साथ ही देश के शासन-प्रशासन के लिए भी आवश्यक है। इससे अंग्र्रेजी के आधिपत्य पर भी अंकुश लगेगा। साथ ही इससे आत्मनिर्भर भारत की बुनियाद भी मजबूत हो सकेगी। इसमें बड़ा सवाल यही है कि यह कैसे संभव होगा? हालांकि इस उद्देश्य के लिए आइआइआइटी-बीएचयू को चिन्हित कर लिया है और अन्य संस्थानों के चयन की प्रक्रिया जारी है।
कोठारी आयोग के ड्राफ्ट में भी स्कूली शिक्षा के साथ उच्च शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी का उल्लेख है। यह बात संसद और देश के बुद्धिजीवियों ने भी मानी है,परंतु धरातल पर स्थिति नहीं बदली। इन बीते वर्षों में लोक सेवाओं से लेकर तकनीकी शिक्षा में अंग्र्रेजी का दबदबा बढ़ता गया और उनमें भारतीय भाषाएं निरंतर पिछड़ती गईं। पिछली सदी के आठवें दशक तक दिल्ली विश्वविद्यालय में कई पाठ्यक्रम हिंदी में संचालित होते थे, लेकिन आज स्थिति उलट है। जेएनयू में तो हिंदी माध्यम में प्रवेश ही नहीं कर पाया और यही हाल जामिया और अम्बेडकर विश्वविद्यालय का भी है। अफसोस की बात यह है कि यह सब देश की राजधानी में हो रहा है। इसलिए भारतीय भाषाओं के सम्मान के लिए पहली प्रयोगशाला दिल्ली और उसके आसपास का क्षेत्र बन सकता है। जब अंग्रेजी माध्यम में ही शिक्षा मिलेगी तो स्वाभाविक रूप से लोक सेवा आयोगों में भी अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जाएगा। इसलिए इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में की शुरुआत संबंधी घोषणा का तो स्वागत किया ही जाना चाहिए साथ ही उच्च शिक्षा में भी इसके लिए दबाव बढ़ाया जाना चाहिए।
वर्ष 2009 में नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकटरामन रामकृष्णन भारत आए थे। उन्होंने यही दोहराया कि भारत की शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी उसका अंग्रेजी पर निर्भर रहना है। उन्होंने यह भी कहा था कि हमें शिक्षा के सभी स्तरों पर भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना होगा। तभी वैज्ञानिक चेतना और शोध में रचनात्मकता आएगी।दुनिया के किसी भी शिक्षाविद ने विदेशी भाषा में दी जाने वाली शिक्षा को शायद ही ठीक माना हो।
अटल बिहारी वाजपेयी भोपाल विश्वविद्यालय का अनुभव इस मामले में एक सीख है। वहां कुछ वर्ष पहले हिंदी माध्यम में इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की गई थी,लेकिन एक साल बाद ही उसे स्थगित करना पड़ा। इसमें बजट से लेकर अध्ययन सामग्री की उपलब्धता प्रशासन की कमजोर इच्छाशक्ति का परिणाम रहा। बाकी बची-खुची कसर अंग्रेजी मीडिया के दुष्प्रचार ने पूरी कर दी। ऐसे में राष्ट्रीय महत्ता के इस काम में मीडिया और समाज का सहयोग भी उतना ही अपेक्षित है। देश के तमाम क्षेत्रों में पिछली सदी के आठवें-नवें दशक तक हिंदी प्राध्यापकों ने तमाम बेहतरीन किताबें लिखीं। उन्हें युद्ध स्तर पर इकट्ठा करने की जरूरत है। साथ ही अंग्रेजी की प्रामाणिक पुस्तकों का स्तरीय अनुवाद भी भारतीय भाषाओं में कराया जाए। चीन और जापान जैसे तमाम देश अपनी भाषाओं में रातोंरात ऐसा स्तरीय अनुवाद उपलब्ध करा देते हैं। भारत में भी इग्नू और दिल्ली विवि. ने कई विषयों की तमाम किताबों के अच्छे अनुवाद कराए हैं। ऐसे में अंधेरा उतना गहरा नहीं, जितना समझा जाता है। इसका दुखद पहलू यही है कि उनके उचित उपयोग के अभाव में हिंदी में काम कर रहे लोग हताश होते है, जबकि उपयोगिता से आत्मविश्वास और गुणवत्ता दोनों बढ़ते हैं।
यह एक बड़ी चिंता है कि इंटरनेट पर हिंदी कंटेंट की बाढ़ आई हुई है, लेकिन अध्ययन सामग्री में वह पिछड़ गई है। इसी कारण कुछ पक्षकार आरंभिक शिक्षा से ही अंग्रेजी की वकालत करते हैं। आज उन्हें करारा जवाब देने की जरूरत है। अंग्रेजी के वर्चस्व से ही देश का वंचित वर्ग मुख्यधारा से बाहर है। समावेशी और आत्मनिर्भर भारत का संकल्प भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है।