12 Mar 2025, Wed

-चन्द्रशेखर तिवारी

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उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद चमोली में विगत रविवार को आई भारी प्राकृतिक आपदा ने वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा की भयावह यादें एक बार फिर से हरी कर दी। सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक नंदादेवी बायोस्फियर रिजर्व के अंतर्गत आने वाले रैणी गांव के समीप ऋषि गंगा नदी में आए जलप्रलय से आसपास के इलाके में बहुत नुकसान पहुंचा। ऋषि गंगा नदी उपरी जलग्रहण इलाके में हिमनद का एक बड़ा हिस्सा टूटकर नदी में गिर जाने की वजह से नदी का जलस्तर बढ़ गया था। आगे जाकर इसने बाढ़ का रूप लेकर नदी के आरपार के छोरों में भारी तबाही मचा दी। एकाएक आये इस जल प्रलय ने नदी के किनारे स्थित ऋषि गंगा जलविद्युत परियोजना को पूरी तरह नेस्ताबूद तो कर ही दिया साथ ही आगे धौलीगंगा नदी पर तकरीबन अस्सी प्रतिशत बन चुकी तपोवन-विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजना को भी भारी नुकसान पहुँचा दिया।इसके अलावा रैणी व तपोवन इलाके केे पांच पुल व कुछ मकान भी इस बाढ़ में बह गये। इस आपदा में जलविद्युत परियोजना में काम कर रहे ढाई सौ से अधिक श्रमिकों व कर्मचारियों के हताहत होने का अनुमान है।
निश्चित तौर पर इस तरह की आपदाएं जहां बार-बार हिमालय के अति संवेदनशील मिजाज के प्रति हमें सजग रहने की चेतावनी देती आ रही हैं वहीं इन आपदाओं से जब-तब यहां के नाजुक पारिस्थितिकीय क्षेत्र में बनायी जा रही भारी-भरकम़ जलविद्युत परियोजनाओं अथवा अन्य बड़ी विकास परियोजनाओं के अस्तित्व पर भी सवालिया निशान भी उठ खड़े होते हैं। विडम्बना है कि प्रकृति के बचाव से जुड़े इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दों को समझे-बूझे बगैर अक्सर विकास विरोधी मानसिकता से देखा जाता है। समाज में कुछ दिनों तक चर्चा में बने रहने के बाद अन्नतः ऐसे मुद्दे नजरअन्दाज कर दिये जाते हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2014 में देहरादून के पर्यावरणविद डाॅ. रवि चोपडा़ की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में उच्च हिमालयी इलाकों में बनायी जा रही इस तरह की कई बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को स्थानीय पर्यावरण के प्रतिकूल करार देने के बाद भी इन सिफारिशों को भुला दिया गया।
अगर हम उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में देखें तो यहां की कुछ बड़ी विकासपरक परियोजनाओं खास तौर पर भारी-भरकम जलविद्युत परियोेजनाओं व गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ व बदरीनाथ को जोड़ने वाली चैड़ी आॅलवेदर रोड जैसी तमाम महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के निर्माण में हिमालय की स्थानीय भौगोलिक संरचना और पर्यावरण से जुड़ी अनेक स्थानीय समस्याओं की पूरी तरह अनदेखी की गयी है। देखा जाय तो इन परियोजनाओं के मूल में विकास की वह अवधारणा व्याप्त है जो त्वरित लाभ प्रदान करने वाली तो है पर सतत अथवा दीर्घकाल तक नहीं। विशुद्ध लाभ की आकांक्षा वाली इस तरह की विकास परियोजना अक्सर पर्यावरण के प्रतिकूल रहती हैं और देर-सबेर प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ावा देने का काम करती हैं। आपदाएं चाहे प्राकृतिक हों अथवा मानवजनित इनका दुःखद परिणाम अन्ततः जन-धन व सम्पदा के नुकसान रुप में सामने आता है।
उत्तराखण्ड हिमालय की उपरी पर्वत श्रृंखलाएं जहां तीव्र ढाल व बर्फ से ढकी हैं वहीं इसका मध्य भाग अपेक्षाकृत सामान्य ढाल वाला है इसके दक्षिण में विस्तृत मैदानी भू-भाग स्थित है जो पर्वतीय नदियों द्वारा लायी गयी मिट्टी से निर्मित है। अपने विशिष्ट भू-गर्भिक संरचनाओं, पर्यावरणीय व जलवायुगत विविधताओं से युक्त इस क्षेत्र में अक्सर भू-स्खलन, हिमस्खलन, बाढ़, व बादल फटने की घटनाएं होती हैं। भू-गर्भिक संरचना की दृष्टि से इस संवेदनशील इलाके में छोटे-बडे़ भूकम्पों की आशंका बराबर बनी रहती है।
पिछले कई दशकों में यहां के अनियोजित विकास, प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन, बढ़ते शहरीकरण तथा उच्च हिमालयी भू-भाग में बांधों व सुरंगो के निर्माण कार्यों ने स्थानीय पर्यावरणीय सन्तुलन को बिगाड़ दिया है। इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में इजाफा हो रहा है। नदी घाटियों से सटी भूमि के साथ ही संवेदनशील जगहों पर जनसंख्या के बसाव होने से प्राकृतिक आपदा आने पर जन-धन की हानि व्यापक स्तर पर हो जाती है।उत्तराखण्ड में वर्ष 1998 के मालपा भू-स्खलन में ढाई सौ से अधिक तीर्थयात्रियों की असमय मौत तथा जून 2013 में आयी केदारनाथ आपदा में हजारों की तादात में लोगों की मौत के पीछे भी यही कारण मुख्य रहेे।
पिछले कुछ सालों में आयी प्राकृतिक आपदा के आंकड़ों को देखने सेृ पता चलता है कि प्राकृतिक आपदाओं से उत्तराखण्ड के जन-जीवन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है। मध्य जून से लेकर सितम्बर माह तक (मानसून के दौरान) की मध्यम अथवा मूसलाधार बारिश यहां के लोगों के लिये मुसीबत बनकर आती है। मानसून के दौरान भूस्खलन व बाढ़ से पर्वतीय राज्य के लोगों का जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है। जिसमें अक्सर लोगों व मवेशियों की जानें चली जाती हैं और घर-मकान के साथ ही खेती की जमीन व सार्वजनिक सम्पतियों यथा सड़क, गूल, नहर,पुल, घराट व स्कूल भवनों की क्षति देखने को मिलती है। इस कारण लोगों को भारी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। शीतकाल में उच्च हिमालयी भागों में बर्फबारी, हिमस्खलन आदि से भी लोगों का जीवन प्रभवित हो जाता है।हिमप्रदेशों में हिमनद गतिशील अवस्था में रहते हैं। खुद के भार से हिमनद ढलान में नीचे की ओर प्रवाहमान रहती हैं। शीत प्रधान जलवायु निरन्तर बर्फ जमा होते रहने से हिमनद की निचली परतों पर जब ऊपर से दबाव पड़ने लगता है तब वह भार के दबाव से आगे को खिसकने लगती हैं।
भूगर्भ विज्ञानियों के अनुसार हिमालय का क्रमिक उत्थान आज भी सतत रूप से जारी है। उत्तराखण्ड हिमालय के आन्तरिक भू-भाग में अनेक भ्रंश सक्रिय अवस्था में हैं, जिनके वजह से यहां भूकम्प आने की आशंका बनी रहती है। भूकम्प मानचित्र के अनुसार उत्तराखण्ड का पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली व रूद्रप्रयाग जपनद का सम्पूर्ण भाग तथा पौड़ी,उत्तरकाशी, टिहरी, चम्पावत व अल्मोड़ा जनपद का आंशिक भाग सर्वाधिक भूकम्प जोखिम क्षेत्र में आता है।
पहाड़ों में मिट्टी ,पत्थर और चट्टानों के ढाल पर खिसकने की प्रक्रिया भू-स्खलन को जन्म देती है। अत्यधिक वर्षा, बादल फटने, भूकम्प, तीव्र हिम गलन जैसे प्राकृतिक कारणों तथा नदी नालों के प्राकृतिक रास्तों में हस्तक्षेप करने और अनियोजित तरीके से भूउपयोग में बदलाव करने से भू-स्खलन आते हैं। भू-स्खलनों से यदा-कदा जनधन व पशुधन की भी हानि देखने को मिलती है। यही नहीं भू-स्खलन से सड़क,पुल, बिजली, टेलीफोन, नहर, पेयजल जैसी योजनाएं भी प्रभावित हो जाती हैं। भू-स्खलनों से खेती-बागवानी की जमीन समेत वन सम्पदा व जलस्रोतों को भी नुकसान पहुंचता है।
हिमालयी क्षेत्र में नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में दीर्घ समय तक होने वाली भरी वर्षा से अतिरिक्त पानी इन नदियों में प्रवाहित होने लगता है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कभी-कभी भारी भू-स्खलन के मलबे से नदियों का प्रवाह बाधित हो जाता है और वहां पर अस्थायी झील के अचानक टूट जाने से नदी में बाढ़ आ जाती है। 1894 को विरही नदी तथा 1978 में भागीरथी घाटी में इसी वजह से बाढ़ आयी जिसमें अलकनंदा व भागीरथी के किनारे बसे तमाम गांव तबाह हो गये थे।
हिमालय़ में आपदाओं का इतिहास बहुत पुराना है। अपनी विकासमान स्थिति में होने के कारण समूचा हिमालय आज भी निरन्तर सक्रिय है। भू-गर्भिक हलचलों की वजह से इस इलाके में भूकम्प, भूस्खलन, हिमस्खलन, जलप्रलय जैसी आपदाओं के आने की आशंका लगातार बनी रहती है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हिमालय में आपदाएं पहले से आती रहीं हैं, आज भी आ रहीं हैं और आने वाले समय में भी आती रहेंगी।ऐसे में हमें इस बात को बहुत गहराई के साथ समझना होगा कि हिमालय सरीखे नाजुक पारिस्थितिकी वाले क्षेत्र में बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाओं विशेषकर बांधों, सुरंगों व सड़क निर्माण पर किस तरह की नीतियों कारगर हो सकती हैं। यह विडम्बना ही है कि इस दिशा में हम आज तक ईमानदारी से ठोस पर्यावरणीय नीतियां तय नहीं कर पाये हैं। योजनाकारों व नीति-नियंताओं को ध्यान देना होगा कि वे योजना बनाते समय हिमालय की जलसम्पदा अथवा उसमें मौजूद ऊर्जा शक्ति के अध्ययन के साथ ही बांधों सुरंगों व सड़क की वहां की पारिस्थितिकी के आधार पर वहन क्षमता का सटीक आंकलन करें। निश्चित तौर पर हिमालयी राज्यों को अपनी विदोहनकारी नीति से उपर उठकर यहां के जल-जंगल व जमीन के संरक्षण के लिए आगे आना होगा और प्राथमिकता के साथ टिकाऊ विकास की उस अवधारणा पर बल देना होगा जिसके जरिए हमें प्रकृति से धीरे-धीरे दीर्घकाल तक लाभ मिलता रहे। इन सारे सवालों के समाधान के लिये हमें प्रकृति के साथ समन्वय बनाने की ओर उन्मुख होने के साथ ही पर्यावरण के हिसाब से अपनी सुविधाओं व आकांक्षाओं में तालमेल रखना होगा। इसके लिये प्रकृति को सहयोग करने की उतनी ही जरुरत है जितनी हम उससे लाभ उठाने की इच्छा रखते हैं।
कुल मिलाकर हिमालय की इस मूक संवेदना को हमें एक समग्र पर्यावरणीय दृष्टि के साथ आत्मसात करना होगा और उसकी सेहत की चिंता में हमें हरदम शामिल रहना होगा। अन्यथा वह दिन भी दूर नहीें जब केदारनाथ और ऋषि गंगा जैसी आपदाएं इसी तरह तबाही मचाती रहीं तो तब न हिमालय बचेगा और नहीं उसकी गोद में बसा गंगा-जमुना का वह विशाल हरा-भरा मैदान।
(लेखक-रिसर्च एसोसिएट ,दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड, देहरादून)

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