जुहू चौपाटी के किनारे बैठा हुआ वह शख्स रेत पर बैठे एक परिवार को लगातार घूरे जा रहा है, परिवार में पति पत्नी जहाँ समुद्र से आती ठंढी हवाओं के साथ प्रेमालाप में मशगूल हैं। वहीं छोटा बच्चा रेत के घरौंदे बनाने में, अचानक बच्चा रोने लगता है और परिवार का ध्यान बच्चे पर जाता है वह उसे टिफिन निकाल कर कुछ खिलाते हैं और फिर उठकर चल देते है तभी दूर बैठा वह शक्स दौड़कर आता है और परिवार द्वारा छोड़े गए डिब्बे को खाने की ललच में उठा लेता है। डब्बे का ढक्कन खोलते ही उसकी उंगलियां मल से सन जाती है। छी ! कहता हुआ वह शख्स डब्बा फंेक देता है। तीन दिन से भूखा यह शख्स कोई और नही, हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार रमेश चन्द्र मटियानी हैं जो बाद में शैलेश मटियानी के नाम से प्रसिद्ध हुए।
हिंदी साहित्य में लगभग 300 अमूल्य कहानियां, 18 उपन्यास तथा सैकड़ांे निबंध देने वाले अमर कथाकार शैलेश मटियानी का जन्म 14 अक्टूबर, 1931 ई0 को उत्तराखंड की साहित्य व सांस्कृतिक राजधानी अल्मोड़ा से 16 किमी दूर बाड़ेछीना गांव में हुआ था, इनके पिता का नाम विशन सिंह मटियानी था, इनके दादा/बाबा इस क्षेत्र के प्रसिद्ध घी व्यापारी थे जिनके लिए यह कहावत मशहूर थी ‘‘जितुवा को बोल, तगड़ी’’ को तौल अर्थात ‘‘जीत सिंह के मुंह का कहा हुआ तराजू के तौले हुए के बराबर होता है’’। ऐसे सम्पन्न परिवार में जन्मे शैलेश मटियानी का बचपन बेहद दुखद बीता, बचपन में ही इनके पिता किसी अन्य स्त्री से विवाह करके ईसाई हो गए थे तथा गांव से 40 किमी दूर ईसाइयों के गांव बेरीनाग के पास रहने लगे थे। पिता के आश्रय से विहीन यह बालक अपने छोटे भाई बहन के साथ अपने दादा-दादी के साथ सबसे छोटे चाचा के आश्रय में रहने लगा था। स्तन कैंसर से पीड़ित माँ प्रायः बिस्तर पर ही रहती थी, उसके कैंसर के मवाद लगे कपड़ों को धोने का कार्य 12 वर्ष के शैलेश को ही करना पड़ता था, कुछ समय बाद माँ का साया भी उठ जाने के उपरांत ये तीनों बच्चे पूर्णतया चाचा पर आश्रित हो गए थे।
प्रातः जानवरों को चारा डालना दूध निकालना और फिर रूखा सूखा खाकर जानवरों के साथ जंगलों में निकल जाना और शाम को लौटते हुए सर पर सूखी लकड़ी या घास का गट्ठर लिए आना इनकी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा था। ऐसे ही एकदिन जब यह गांव के प्राथमिक विद्यालय के समीप जानवर चरा रहे थे तभी स्कूल के मास्टर साहब श्री लक्ष्मण सिंह गैल कोटी ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा ‘‘क्यों तुम्हारी भी पढ़ने की इच्छा होती है ?’’ उनके इतना पूछते ही बालक रमेश फूट-फूट कर रोने लगा था। गैल कोटी द्वारा चाचा को समझाने पर इनकी प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ हुई। गांव में मिडिल करने के उपरांत आपने अल्मोड़ा के इंटर कॉलेज मंे प्रवेश लिया और अपने दूसरे चाचा बहादुर सिंह के आश्रय में रहने लगे यहाँ की दिनचर्या में पहले सुबह उठकर चाचा की गोश्त की दुकान पर 2-3 बकरियां काटकर तथा अंतड़िया साफ करके स्कूल जाया करते तथा स्कूल से वापस आने पर पुनः दुकान पर बैठना होता था। इनके छोटे भाई रामजे स्कूल के बाहर चूरन व मूंगफली बेचकर गुजारा करता था ।
साहित्य के प्रति रमेश की रुचि अल्मोड़ा अध्ययन के समय ही जागृति हुई अल्मोड़ा नगर निगम के पुस्तकालय में चंद्रकांता, डाकू बहराम, वीर अर्जुन आदि रचनाओं को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इनके चचेरे भाई जो कि नेवी में कार्यरत थे उनकी कविताएं नेवी की पत्रिका में छपा करती थी तथा इनके सहपाठी श्री कुँवर सिंह तिलारा की कविताएं अल्मोड़ा के स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में छपा करती थी जिन्हें देखकर इन्हें भी काव्य रचना की प्रवित्ति जागृति हुई तथा इन्होंने अपनी कुछ रचनायें स्थानीय पत्रों में भेजी जहाँ इनकी रचनाओं को वापस करते हुए कहा गया कि ‘‘अरे वह जुआरी का बेटा और बूचड़ का भतीजा कविता कहानियां लिख रहा है।’’ समाज के तानों ने जहाँ रमेश को निराश किया वहीं दिल्ली के प्रकाशन रंगमहल तथा अमर कहानियो में इनकी रचनाये प्रकाशित भी होने लगी। 1950 में जब रमेश की कहानियां प्रथम बार प्रकाशित हुई थी, उस समय आप कक्षा 9 के विद्यार्थी थे 1951 में हाईस्कूल पास करने के उपरांत समाज के तानों से दुखी तथा अल्मोड़ा में अपना भविष्य न देखकर अपने चाचा के घर से चुराये घी को 20 रुपये में बेचकर हल्द्वानी को निकल पड़े। 1951 में अल्मोड़ा से निकलने की उनकी यह यात्रा रानीखेत, हल्द्वानी, दिल्ली, इलाहाबाद ,मुजफ्फरनगर , बम्बई, इलाहाबाद फिर हल्द्वानी तक 24 अप्रैल, 2001 ई0 तक जारी रही।
1951 में अल्मोड़ा से हल्द्वानी तक कि इस 50 वर्ष की अविराम यात्रा में शैलेश जी के जीवन मंे कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं, जिन्होंने इनके लेखकीय जीवन को समृद्ध किया। वो चाहे भूख से व्याकुल एक घर के बरामदे में सो जाने व मकान मालिक के चोर समझ लेने तथा बहादुरगंज पुलिस चौकी में बंद होना तथा पुलिस द्वारा खाना कपड़ा देने की घटना हो या बम्बई के फुटपाथों पर बन्दरों को खिलाने के लिए फेंके गए चने को बिनकर खाना या अपने खून बेचकर जीवन को बचाने की घटना रही हो। शैलेश जी का जीवन भोगे गए यथार्थ का जीता जागता महाकाव्य रहा है ।
भारतीय साहित्य के इतिहास में शैलेश मटियानी एक मात्र ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने फुटपाथ पर रात बिताते हुए साहित्य रचना कर्म किया। खून बेचने से आई कमजोरी के फलस्वरूप 1953 में बम्बई के चर्नी रोड़ पर स्थित श्री कृष्ण पूरी हाउस में बर्तन धोने का कार्य करना प्रारम्भ कर दिया यह कार्य करते समय जहाँ शैलेश के खाने व रहने की समस्या का समाधान हो गया था वही लेखन का कार्य भी होने लगा था। शैलेश जी की अधिकांश काव्य रचनाये इसी समय बर्तन धोने की मोरी के पास बैठ कर कप प्लेट धोने के बीच अवकाश के मध्य लिखी गयी उनकी एक कविता दृष्टाव्य है – गीत को उगाते हुए सूरज – सरीखे छंद दो शौर्य को फिर शत्रु की हुंकार का अनुबंध दो प्राण रहते तो न देगें,भूमि तिल -भर देश की फिर भुजाओं को नये संकल्प – रक्षा बंद दो ऐसी ही एक काव्य रचना में अपनी दशा का वर्णन करते हुए शैलेश जी लिखते हैं- दुसह है तृष्णा ,सही जाती नही ,अकथ है गाथा ,कही जाती नही आज यो मंडरा गई मेघिल व्यथा ,पलक भी पूरी ढपी जाती नही बाल विधवा -सी बिलखती कल्पना , और कुछ अवसाद है इतना घना आंसुओं की उठ चुकी अर्थी , मगर लोचनों की कपकपी जाती नही ।
मोरी पर बैठा इस साहित्यकार का लेखन कौशल और काव्य प्रतिभा का आप उपरोक्त पंक्तियों से सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। साढ़े तीन वर्षों तक श्री कृष्ण पूरी हाउस में कार्य करते हुए जहाँ वे बर्तन धोने से लेकर आर्डर लेने वाले तक पहुंच गए थे और वेतन 8 रु0 मासिक से बढ़ते-बढ़ते 20 रु0 तक हो गया था ,इसी बीच अनेक कविता, कहानी, लिखने के साथ-साथ इन्होंने अपने दो महत्वपूर्ण उपन्यास बोरीवली से बोरी बन्दर तक और कबूतर खाना पूर्ण कर लिया था।
सन 1957 में अपना विवाह नारायणी देवी के साथ हुआ, जिन्हें आप प्यार से नीला कहकर पुकारते थे। विवाह बाद आप 1957 से 60 तक बम्बई तथा 1960 से 1965 तक दिल्ली में रहकर रचना कार्य करते रहे, इसी बीच इलाहाबाद के प्रसिद्ध किताब महल के संचालक श्री निवास अग्रवाल के निमंत्रण पर 1965 में आप इलाहाबाद आ गए और आनन्द भवन के सामने रहने लगे 1965 से लेकर 13 अप्रैल, 1992 तक आप इलाहाबाद के कर्नल गंज ,मैहदौरी, एलनगंज आदि स्थानों पर रहकर लेखन का कार्य करते रहे । 27 वर्षों के इलाहाबाद प्रवास के दौरान आप जहाँ राजेन्द्र कुमार, मार्कंडेय, सत्य प्रकाश मिश्र, उपेन्द्र नाथ अश्क, अमृत राय, जगदीश चन्द्र गुप्त , धर्म वीर भारतीय, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर आदि साहित्यकारों से हुआ वहीं आप प्रलेश, जलेश तथा जसम आदि साहित्यिक संगठनों से भी आप का परिचय हुआ। डॉ0 शिव दास सिंह चौहान व प्रगति शील लेखक संघ के सज्जाद जहीर के कहने के बाद भी आपने इन संगठनों का सदस्य बनने से इंकार कर दिया ।
शैलेश मटियानी का समय साहित्यिक गुटबाजी का स्वर्ण काल था जहाँ समस्त हिंदी भाषा-भाषी प्रदेश के साहित्यकार किसी न किसी गुट में सम्मलित हो रहे थे औऱ जो किसी भी संगठन का सदस्य नहीं बनता था, उसे ये संगठन लावारिस समझकर अंधकार में धकेल देते थे। शैलेश मटियानी ऐसे ही संगठित षडयंत्र का शिकार हुए। यहीं कारण है कि कलम का धनी तथा कागज की खेती करने वाला यह खेतिहर जीवन के अंत तक आर्थिक तथा साहित्यिक पहचान पाने की छटपटाहट में विवश रहा।
51 वर्षों (1950-2001) के अपने साहित्यिक जीवन में शैलेश मटियानी ने 30 उपन्यास, 28कहानी संग्रह, 9 लोककथा संग्रह, 16 बाल कथा संग्रह, 01एकांकी संग्रह तथा 13 निबन्ध संग्रह का लेखन कार्य किया। इसके अतिरिक्त विकल्प व जनपक्ष जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन व संपादन भी किया। हिंदी साहित्य में इतनी विपुल मात्रा में रचना करने वाला साहित्यकार जातिगत संघर्षों तथा साहित्यिक संगठनांे की गुटबाजी का शिकार होकर भुला दिया गया। आज शैलेश मटियानी जीवित होते तो 90 वर्ष के होते और कहीं बैठे साहित्य रचना में निमग्न होते। मटियानी जी का साहित्य सच्चे अर्थों में भोगे हुए यथार्थ की महागाथा है। यही कारण है कि भूख, स्त्री और मृत्यु इनके कथा साहित्य के तीन आधार बिंदु रहे हैं।
भूख मटियानी जी के जीवन में सम्पूर्णता से व्याप्त है और जीवन भर कागज की खेती करते हुए इससे लड़ने की असफल कोशिश करते रहे चील कहानी का रामखेलावन नामक बालक भूख से बेहाल होकर चोरी करने लगता है और पकड़े जाने पर कहता है- चोरी न करी तो हम का करी! भूखे मर जाई? भूख की यह पीड़ा और संघर्ष शैलेश के कथा साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है। स्त्री शैलेश के साहित्य में दूसरा प्रमुख किरदार रही है-बचपन में मा का कैंसर से मृत्यु, प्रेम में असफलता औऱ पहाड़ की स्त्री के संघर्ष ने इनको स्त्री विमर्श से सम्बंधित रचनाओं का वृहद भावभूमि प्रदान की। यही कारण है कि इनके साहित्य में स्त्री पात्र सशक्त रूप से उभरकर आये हैं। किस्सा नर्मदा वेन, गंगूबाई, गोपुली गफूरन आदि रचनाओं में अभिव्यक्त हुए हैं। मृत्यु को शैलेश जी संघर्ष का महत्वपूर्ण मुद्दा मानते है। मृत्यु का संकट और अस्तित्व का संघर्ष उनकी कहानियों में बार-बार रेखांकित हुए है।
अन्य साहित्यकारों की तरह शैलेश जी सिर्फ लेखकीय स्वतंत्रता, लोकतंत्र तथा राष्ट्रप्रेम की बात नहीं करते अपितु वह इसे जीते भी रहे यही कारण है जब धर्मयुग पत्रिका में उनका चित्र संजय गांधी के साथ छापा गया तो न सिर्फ उन्होंने उसका विरोध किया अपितु मानहानि का दावा भी किया तथा अर्थाभाव में सुप्रीमकोर्ट तक अपने मुकदमे की पैरवी स्वयं की जबकि मार्कण्डेय जैसे घोषित प्रगतिशील (जिसका चित्र साथ में छपा था) चुप्पी साध गये थे। प्रगतिशील लेखक संघो द्वारा आपको दक्षिणपंथी घोषित करते हुए मौन बहिष्कार किया गया, जबकि शैलेश जी वोे कथाकार थे जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री को कवि मानने से इंकार करते हुए 16 पन्नों का पत्र लिखकर कहा था ‘-आप कवि नहीं है आप के चाटुकार आपको कवि बनाये हुए है। मटियानी जी लेखकीय स्वतंत्रता के प्रबल हिमायती थे यही कारण है कि उन्होंने एक बार लेखक संगठनों को गिरोह की संज्ञा तक दे डाली थी। लेखक संगठनों के विषय में लिखते हुए मटियानी जी लिखते हैं कि ‘‘मार्क्स वाद का यह दुराग्रह की अगर आप हमारे संगठन में नहीं है, हमारे विचार आपके विचार नहीं है तो आप को हम खारिज करते हैं-इससे बड़ी तानाशाही प्रवृत्ति और क्या होगी ?’’ यह मटियानी जी की व्यक्तित्व स्वतंत्रता की अवधारणा और एकला चलो की नीति ही रही कि लेखकीय समाज ने इनको भुला दिया। दलित तथा स्त्री विमर्श में सशक्त रचना करने के बाद भी उनका वह मूल्यांकन नहीं किया गया जिसके वे हकदार थे। प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद मिश्र ने शैलेश के साहित्य पर विचार करते हुए कहा है कि ‘‘कहानियों की संख्या, संवेदना, पत्रों की विविधता, जमीन की गंध सभी कुछ है वहा और इस मात्रा में जिसमें उनके समकालीन किसी अन्य कथाकार के यहाँ नहीं। एक मायने में वे प्रेमचंद से आगे जाते हैं।’’
✍️ अरविन्द कुमार ‘‘मौर्य’’ वरिष्ठ शोध अध्येता कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल मोबाइल नम्बर- 9936453665